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गुप्तकालीन प्रशासन

गुप्तकालीन प्रशासन

गुप्त राजाओं का काल भारतीय इतिहास में ‘स्वर्णयुग’ के नाम से प्रसिद्ध है। इस सभ्यता और संस्कृति के प्रत्येक क्षेत्र में अभूतपूर्व विकास हुआ है। अब हम इन्ही विकास की चर्चा करेंगे।

प्रशासन-

गुप्त शासन का मुख्य केंद्र बिंदु राजा होता था। गुप्त शासक महाराजाधिराज और परमभट्टारक जैसी बड़ी उपाधियां धारण करते थे। राजा की सहायता के लिए एक मंत्री परिषद होती थी। इसके ज्यादातर सदस्य उच्च वर्ग के होते थे। इनको अमात्य कहा जाता था। मंत्रियों का पद ज्यादातर अनुवांशिक होता था। एक ही मंत्री के पास कई विभाग होते थे। मंत्रियों को वेतन नगद और भू-राजस्व के रूप में दिया जाता था।

  1. कुमारामात्य 
  2. महादण्डनायक
  3. दण्डपाशिक 
  4. सर्वाध्यक्ष 
  5. अग्रहरिक
  6. न्यायधिकरण
  7. महासेनापति 
  8. महासंधिविग्रहिक 

भूमिदान– भूमिदान की प्रथा महाकाव्य  युग से ही आ रही है। महाभारत में ‘भूमिदान प्रशंसा’ नामक अध्याय की रचना की गई है। भूमिदान का सबसे प्राचीन अभिलेखीय प्रमाण पहली शताब्दी ईशा पूर्व के ‘सातवाहन अभिलेख’ से मिलता है।पांचवी शताब्दी ईशा पूर्व से भूमिदान की प्रवृत्ति तेजी से फैलने लगी और छठी शताब्दी तक आते-आते यह पूरी तरह से प्राप्त हो गई। अब सामंत बिना राजा की अनुमति के ही भूमि दान करने लगे। डॉ०आर एस शर्मा ने इसे सामंतवाद के उदय का प्रमुख कारण बताया है।

इस प्रकार गुप्त काल के अंतिम समय में सामंतवाद का उदय हुआ।  

प्रांतीय प्रशासन-

प्रशासन की सुविधा के लिए गुप्त साम्राज्य अनेक प्रांतों में विभाजित किया गया। प्रान्त को देश, अवनि या भुक्ती कहा जाता था। भुक्ति शासक को उपरिक कहा  जाता था। इस पद पर राजकुमार अथवा राज कुल से संबंधित व्यक्तियों की ही नियुक्ति की जाती थी। सीमांत प्रदेशों के शासक गोप्ता कहलाते थे।

जिला प्रशासन– भूक्ति का विभाजन अनेक जिलों में हुआ जिसे ‘विषय’ कहा जाता था। उसका प्रधान अधिकारी विषयपति होता था। विषयपति का अपना कार्यालय होता था। कार्यालय के अभिलेखों को सुरक्षित रखने वाले अधिकारी को पुस्तपाल कहा जाता था। विषयपति की सहायता  के लिए ‘विषय परिषद्’ होती थी इसके ‘सदस्य विषय’ महत्तर कहे जाते थे।

इनके निम्नलिखित सदस्य थे – 

  1. नगर श्रेष्ठि – नगर के श्रेणीयों का प्रधान।
  2. सार्थवाह – व्यापारियों का प्रधान। 
  3. प्रथम कुलिक  – प्रधान शिल्पी। 
  4. प्रथम कायस्थ – मुख्य लेखक।

नगर प्रशासन – प्रमुख नगरों का प्रबंध नगर पालिका करती थी। नगर के प्रधान अधिकारी को पुरपाल कहा जाता था।

स्थानीय प्रशासन – जिले तहसील में बंटे थे। इन्हे विथी कहा गया। तहसील पेंठ में बंटे थे। जो ग्राम से बड़ी इकाई तथा पेठग्राम  में विभाजित थे।

ग्राम प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थी। इसका प्रशासन ग्राम सभा द्वारा चलाया जाता था। ग्राम का प्रमुख अधिकारी ग्रामिक पिया ग्रामपति कहलाता था। ग्राम सभा के कुछ पदाधिकारियों के नाम प्रकाश मिलते हैं। ( महत्तर, अष्टकुलाधिकारी,ग्रामिक, और कुटुम्बिन)

गुप्तकालीन प्रशासन मौर्यों की अपेक्षा अत्यधिक विकेंद्रीकृत था।

न्याय प्रशासन-

गुप्तकालीन स्मृतियों नारद और बृहस्पति से न्याय व्यवस्था की जानकारी मिलती है। गुप्त युग में प्रथम बार दीवानी तथा फौजदारी कानून भली – भांति परिभाषित और पृथक्कृत हुए। गुप्तकालीन अभिलेखों में न्यायाधीशों को माहादंडनायक, दंडनायक, सर्वदंडनायक,आदि कहा गया है। नालंदा तथा वैशाली के कुछ न्यायालय की मुद्राएं भी मिलती हैं। जिनके ऊपर न्यायाधिकरण धर्मा धिकरण तथा धर्मशासनधीकरण अंकित है।

व्यापारियों तथा व्यवसायियों की श्रेणियां के श्रेणियों के अपने अलग न्यायालय होते थे। जो अपने सदस्यों के विवादों का निपटारा करते थे। 

फाह्यान के विवरण से पता चलता है कि दण्ड विधान अत्यंत कोमल था तथा मृत्यु दंड नहीं दिया जाता था। 

सैनिक संगठन-

सेना के सर्वोच्च अधिकारी को महाबलाधीकृत कहा जाता था। हाथियों की सेवा के प्रधान को महापीलुपति तथा घुड़सवारों की सेना के प्रधान को भटाश्वापति कहते थे। सेवा में सामानों की व्यवस्था रखने वाले प्रधान अधिकारी को रणभांडागारिक कहते थे। प्रयाग प्रशस्ति में कुछ अस्त्र-शस्त्रों के नाम इस प्रकार हैं – परशु , शर, तोमर, भिंदिपाल, नाराच आदि।

सामाजिक स्थिति-

गुप्तकालीन समाज परंपरागत चार वर्णों में बांटा था। समाज में ब्राह्मणों का स्थान सर्वोच्च था। क्षत्रियों का स्थान दूसरा था तथा वैश्यों का तीसरा था। शूद्रों का मुख्य कर्तव्य अपने से उच्च वर्णों की सेवा करना था। गुप्त काल में यह वर्ण भेद स्पष्ट रूप से थे। वराह मिहिर ने वृहतसंहिता में  चारों वर्णों के लिए विभिन्न बस्तियों की व्यवस्था की गई थी। इसके अनुसार ब्राह्मण के घर में पांच, क्षत्रिय के घर में चार, वैश्य के घर में तीन, और शुद्र के घर में दो कमरे होने चाहिए। कौटिल्य ने भी चारों वर्णों के लिए अलग-अलग बस्तियां का विधान किया था। 

न्याय संगीता में कहा गया है कि ब्राह्मण की परीक्षा तुला से, क्षत्रियों की अग्नि से, वैश्या की जल, से और शूद्रों की विष से  की जानी चाहिए। निम्न जाति का वादी उच्च जाति के साथियों से अपना वाद प्रमाणित नहीं करा सकता। परंतु नारद ने साक्ष्य देने की पुरानी वर्णमुल भेदक व्यवस्था के विरुद्ध कहा है कि सभी वर्णों के लिए साक्षी किये जा सकते हैं।

इसमें ब्राह्मणों की पवित्रता पर भी बल दिया जाता था। इस काल के ग्रंथो अनुसार ब्राह्मण को शुद्र का अन्न नहीं ग्रहण करना चाहिए। क्योंकि इसे आध्यात्मिक बाल घटता है। बृहस्पति ने संकट में ब्राह्मणों को वश्यों और शुद्रो का अन्न खाने की अनुमति दी है।

हिंदू धर्मशास्त्रों में क्षत्रियों के लिए भी यह व्यवस्था थी कि वह संकट काल में अपने से नीचे वर्णों का कर्म अपना सकते थे। वैश्य वर्ग द्वारा भी क्षत्रिय का व्यवसाय ग्रहण कर लेने के अनेक उदाहरण हैं। वैश्य गुप्त काल में कृषक भी थे। अमरकोश में कृषक के पर्याय वैश्य वर्ग में बनाए गए हैं। बौधायन स्मृति में वैश्यों की अवस्था सूत्रों के समान दर्शाई गई है। 

मनु ने शुद्र की सेवा वृत्ति पर बहुत अधिक बल दिया है। उनके अनुसार शूद्र का एकमात्र धर्म तीनों वर्णों की सेवा था। परंतु याज्ञवल्क्य ने उदार दृष्टिकोण रखा और शूद्रों को व्यापारी कृषक तथा कारीगर होने की अनुमति दी। व्हेन सांग ने मलतीपुर के राजा को शूद्र बताया है।  

गुप्त काल में शिल्पकर्म शूद्रों के लिए सामान्य कर्तव्य में आ गया। वायु पुराण के अनुसार उसके दो मुख्य कर्तव्य थे शिल्प और भृत्य अमरकोश में शिल्पियों की सूची शुद्र वर्ण में है।

गुप्तकालीन वर्ण व्यवस्था की एक प्रमुख विशेषता, वैश्यों की सामाजिक स्थिति में गिरावट एवं शूद्र की सामाजिक स्थिति में अपेक्षाकृत सुधार प्रतीत होती है। व्यापार में गिरावट के कारण वैश्य वर्ग को नुकसान पहुंचा जबकि दंडविधान आदि में कमी के कारण इसका सर्वाधिक फायदा शूद्र वर्ण को मिला और उनकी सामाजिक स्थिति वैश्यों के नजदीक आ गई। इस काल के स्मृतिकारो ने ‘आपदधर्म’ की कल्पना भी की अर्थात आपत्ति के समय में अपने धर्म से अलग हटकर कार्य करना। 

मिश्रित जातियां– अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाहों के फलस्वरुप अनेक मिश्रित जातियों का उदय गुप्त काल में हुआ। गुप्तकालीन स्मृतियों में इसका उल्लेख मिलता है। याज्ञवल्क्य स्मृति में अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों के फल स्वरुप निम्नलिखित मिश्रित जातियों का उल्लेख है- 

     अनुलोम विवाह 

1.उग्र – क्षत्रिय = शुद्र

2.करण – वैश्य = शुद्र

3.महिष्य – क्षत्रिय = वैश्य

       प्रतिलोम विवाह

1.सूत – क्षत्रिय = ब्राह्मण

2.आयोगवाह – शूद्र = वैश्य 

3.चांडाल – शूद्र = ब्राह्मण  

कायस्थ– गुप्तकालीन अभिलेखों में कायस्थ नामक एक नए वर्ग का उल्लेख मिलता है। उनकी गणना किसी उपजाति से नहीं में थी। उनका उदय भूमि और भू राजस्व के स्थानांतरण के कारण हुआ है। इन्होंने ब्राह्मण लेखकों का एकाधिकार को समाप्त कर दिया। अतः ब्राह्मण रचनाओं में उनके प्रति अपमानजनक एवं कटु विचार व्यक्त किए गए हैं।

इस जाति के लोग मूल रूप से राजकीय सेवा से संबंधित थे। उनका प्रधान कार्य केवल लेखकीय ही नहीं होता था बल्कि वे लेखाकरण गणना , आय व्यय और भूमिकर के अधिकारी भी होते थे। गुप्तकालीन अभिलेखों में उन्हें प्रथम कायस्थ या ज्येष्ठ कायस्थ कहा गया है। गुप्त युग तक कायस्थ केवल एक वर्ग थे जाती नहीं। कायस्थ वर्ग का उल्लेख सर्वप्रथम याज्ञवल्क्य स्मृति में मिलता है लेकिन एक जाति के रूप में इनका उल्लेख गुप्त काल के बाद की स्मृति में मिलता है। 

दास प्रथा – गुप्त काल में दास प्रथा प्रचलित थी। नारद और बृहस्पति स्मृतियों से स्पष्ट है कि दास केवल अपवित्र कार्यों में लगाए जाते थे। यज्ञवल्क, नारद और कात्यायन ने कहा है कि दास स्वामी के वर्ण से नीचे के वर्ण का होना चाहिए। कात्यायन के अनुसार दासता ब्राह्मण के लिए नहीं है और वह ब्राह्मण का दास भी नहीं बन सकता। इससे यह स्पष्ट है की दासता केवल शूद्रों तक ही सीमित नहीं थी। गुप्त काल में दासियों के होने का भी प्रमाण मिलता है।  

स्त्रियों की दशा– गुप्त काल में स्त्रियों की दशा में मौर्य काल की तुलना में गिरावट आई।  इसका सबसे मुख्य कारण उनका उपनयन संस्कार पर प्रतिबंध होना। स्त्रियों का कम आयु में विवाह होना। समाज में पर्दा प्रथा तथा सती प्रथा का पालन होने लगा।

इस काल में स्त्रियां जन्म से मृत्यु तक पुरुष के नियंत्रण में रखने के लिए निर्देशित की गई। कम आयु में विवाह की प्रथा के कारण स्त्रियों की शिक्षा पर विपरीत प्रभाव पड़ा। इस काल में केवल उच्च वर्ग में ही स्त्रियां शिक्षा प्राप्त करती थी। विविध कलाओं में निपुण स्त्रियों की भी चर्चा साहित्य में है। चंद्रशेखर की काव्य मीमांसा के अनुसार महिलाएं कवित्री भी होती थी। कालिदास ने अभिज्ञान शाकुंतलम में अनुसूया को इतिहास का ज्ञाता कहां है। 

गुप्तकालीन समाज में विधवाओं की स्थिति अत्यंत दयनीय थी। उन्हें श्वेत  वस्त्र धारण करने होते थे और जीवन भर ब्रह्मचर्य का पालन करना होता था। 

भू – राजस्व व्यवस्था

गुप्त काल में राजा भूमि का मालिक था। वह भूमि से उत्पन्न उत्पादन का 1/6 भाग लेता था।  इस कर को भाग कहा जाता था। मनुस्मृति में दूसरे प्रकार के भूमि कर भोग का उल्लेख है जो संभवत:राजा को प्रतिदिन दी जाने वाली फल फूल सब्जी इत्यादि की भेंट के रूप में थी। गुप्त अभिलेखों में दो अन्य करो उद्रंग और उपरिकर का उल्लेख मिलता है।

भूमि कर संग्रह करने के लिए ध्रुवा अधिकरण तथा भूमि आलेखों को सुरक्षित करने के लिए महाक्षपटालिक और कर्णिक नामक पदाधिकारी थे। 

भूमि के प्रकार-

  1. क्षेत्र – खेती के उपयुक्त भूमि। 
  2. वास्तु – लोगो के रहने योग्य मकान बनाने योग्य भूमि।
  3. गोचर चारागाह भूमि
  4. सिल  – जो भूमि जोती नही जाती थी।
  5. अप्रदा – विवादास्पद भूमि जिसे किसी को ना दिया गया।

भूमि माप की इकाइयां-

बंगाल में भूमि के माप के लिए पाठक शब्द का उल्लेख मिलता है। 

संक्षेप में गुप्तकाल में भूमि मैप से संबंधित निम्नलिखित इकाइयों का उल्लेख है।

  1. निवर्तन 
  2. पाटक 
  3. कुल्यावाप 
  4. द्रोणवाप 

वाणिज्य और व्यापार- गुप्त काल में व्यापार और वाणिज्य का बहुत अधिक विकास हुआ। चंद्रगुप्त द्वितीय ने उज्जैन को अपनी द्वितीय राजधानी के रूप में विकसित किया। में पाटलिपुत्र को भी पीछे छोड़ दिया। इसके अतिरिक्त भारौंच,विदिशा, प्रयाग मथुरा, अहिच्छत्र ,कौशांबी आदि भी प्रमुख व्यापारिक नगर थे।

गुप्त अभिलेखों में श्रेणियों के उल्लेख तथा गुप्त काल के  सोने की मुद्राओं के अधिक विकसित और आंतरिक एवं विदेशी व्यापार की चर्चा की जाती है। किंतु यदि कुषाण युग की तुलना में देखा जाए तो गुप्त काल में व्यापार के हस्र के पर्याप्त चिन्ह मिलते हैं।

जहां तक आंतरिक व्यापार की बात है, आधुनिक खोजने से स्पष्ट है कि ग्राम लगभग आत्मनिर्भर उत्पादक इकाई के रूप में उभर कर सामने आ रहे थे। स्वयं फाह्यान ने लिखा है कि साधारण जनता रोज के विनिमय में वस्तुओं की अदला – बदली अथवा कौड़ियों से कम चलती थी। आंतरिक दृष्टि से वस्तुओं का उत्पादन व्यापार के लिए काम ही होता होगा। 

गुप्त काल में भारत और चीन के बीच व्यापार बढा। भारतीय वस्तुओं के बदले चीन से रेशम आयात किया जाता था लेकिन ना तो चीन के सिक्के यहां मिलते हैं और ना ही भारत के सिक्के चीन में। 

गुप्त काल में भारत एवं दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों के बीच व्यापार का पता चलता है यह व्यापार ताम्रलिप्ति बंदरगाह से होता था। परंतु कंबोडिया, चंपा, वर्मा, मलय, प्रायद्वीप ,सुमात्रा, जावा, बोर्नियो आदि के आरंभिक अभिलेखों में इस व्यापार की कोई चर्चा नहीं मिलती है।

इस समय वस्त्र उद्योग सबसे महत्वपूर्ण था। रेशमी वस्त्र, मलमल , कैलिको , लिनन, ऊनी और सूती वस्त्र की मांग अधिकता के कारण इनका बड़े पैमाने पर उत्पादन किया जाता था। हाथी दांत का व्यापार, पत्थर की कटाई तथा खुदाई का व्यवसाय भी होता था।सोने, चांदी, तांबे,और सीसे का उद्योग भी थे।

गुप्त काल में चीन से रेशम, युथोपिया से हाथी दांत, अब ईरान और बैक्ट्रीरिया से घोड़े का आयात किया जाता था। निर्यातित वस्तुओं में कपड़े, बहुमूल्य पत्थर, हाथी दांत की वस्तुएं, गरम मसाले, नारियल, नील , दवाएं आदि थी।

गुप्त काल में भृगुकच्छ और भरौंच पश्चिमी भारत का प्रमुख बंदरगाह था। यहां से पश्चिमी देशों के साथ समुद्री व्यापार होता था।

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