प्रयागराज कुंभ में विश्व के कोने कोने से आने वाले भक्तों की संख्या बढ़ती जा रही है। दुनिया का सबसे बड़ा आध्यात्मिक मेला जहां एक ही समय, एक ही जगह उमड़ता है तीर्थयात्री सैलानी, जिज्ञासु और भक्तों का सैलाब। उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में भारत की सबसे लंबी, पवित्र और पावन नदी गंगा से होता है यमुना का मिलन और इन दोनों नदियों के साथ में मिलती है एक और पौराणिक नदी सरस्वती तीन नदियों का यह मिलन या त्रिवेणी संगम प्रयागराज को खास बनाता है। माना जाता है कि संगम नदी में केवल एक डुबकी लगाने से ही सारे पाप मिट जाते हैं और इंसान को मोक्ष मिल जाता है जन्म, मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र से।
क्यों लगता है प्रयागराज कुंभ?
यह भी माना जाता है कि मानव जन्म में हर इंसान कोई न कोई पाप करता है और धीरे-धीरे उसके सारे पाप जमा होते जाते हैं और आम मान्यता यह है कि अगर कोई इंसान यहां आकर एक डुबकी लगा ले तो उसने अपने जीवन में जितने पाप किए होते हैं वह सब धूल जाते हैं उनका अंत हो जाता है। और इंसान अपना एक नया जीवन शुरू करता है बिल्कुल शुद्ध और स्वच्छ एक नए सिरे से। कहा जाता है कि महर्षि दुर्वासा के श्राप से देवताओं की दिव्य शक्तियों का नाश होने वाला था। तब भगवान विष्णु ने देवताओं को समुद्र मंथन की सलाह दी और बताया की क्षीर सागर के मंथन से उन्हें अमृत प्राप्त होगा।
लेकिन देवता यह काम अकेले नहीं कर सकते थे और अमृत के लालच में असुर भी उनका साथ देने को तैयार हो गए और शुरू हो गया महान समुंद्र मंथन। मुद्राञ्चल पर्वत को बनाया गया मथानी नागराज वासुकी से बने रस्सी एक तरफ देवता थे दूसरी तरफ दानव उन्होंने 1000 वर्ष तक समुंद्र मंथन किया। तब जाके अमृत से भरा कलश यानी कुंभ निकला कलश के लिए युद्ध छिड़ गया भगवान विष्णु ने अमृत से भरे कुंभ या कलश को अपने वाहन पक्षी राज गरुड़ को सौंप दिया। अमृत कुंभ का यह संघर्ष बारह दैव दिनों तक चला हमारे समय के अनुसार लगभग 12 साल।
जब गरुण अमृत कलश लेकर उड़ रहे थे तब अमृत की चार बूंदे हरिद्वार, नासिक, उज्जैन और प्रयागराज में गिरी और यह हमेशा के लिए यह बन गए महातीर्थ। पारंपरिक रूप से हर 12 साल पर पूर्ण कुंभ का आयोजन होता है। लेकिन गुजरते वक्त के साथ और भी कुंभ बने जैसे अर्ध कुंभ, नासिक और उज्जैन में सिंहस्थ कुंभ भी होते हैं। सूर्य ग्रह और नक्षत्रों की स्थिति के अनुसार हर मेले की तिथि तय होती है। हर 12 साल पर प्रयागराज में महाकुंभ होता है। प्रयाग का कुंभ दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक मेला है।
ऐसा उत्सव किसी और धर्म में नहीं मनाया जाता और जब किसी एक जगह पर इंसानों का इतना बड़ा जनसमूह इकट्ठा हो उनके रहने के लिए भी बहुत बड़ी जगह की जरूरत होती है कुंभ महोत्सव से 6 हफ्ते पहले कुंभ नगर को पूरी तरह से तैयार कर दिया जाता है। इसके आयोजन की योजना 1 वर्ष पहले ही बनाए जाने लगती है
अखाड़ों के प्रमुख और साधु संत अपने समूह के साथ प्रयागराज कुम्भ में आते हैं। पेशवाई से कुंभ की शुरुआत होती है यहां शिव भक्त राख से लिपटे बड़ी-बड़ी जटा वाले नागा बाबा बहुत ही शाही अंदाज में आते हैं जिसे शाही स्नान बोला जाता है नागा बाबा आम सामाजिक रीति रिवाज से परे हैं नागा बाबा अपने पारंपरिक सवारियों जैसे हाथी घोड़े पर चढ़कर स्नान करने आते हैं इनका समूह बहुत ही शान के साथ प्रयागराज कुंभ में रहता है। शाही स्नान के दिन यही नागा बाबा पवित्र नदी में पहले डुबकी लगाते हैं। यहां आने वाले हिंदू सनातन धर्म के तेरह अखाड़े अलग-अलग संप्रदायों से जुड़े हैं।
प्रयागराज कुंभ के अखाड़े
पहले 10 अखाड़ों की स्थापना आठवीं सदी के हिंदू दार्शनिक और धर्म शास्त्री आदि गुरु शंकराचार्य ने की थी। इन अखाड़ों में विश्व के पालनहार भगवान विष्णु के उपासक वैष्णो और विश्व सनरक्षक शिव के भक्त शैव शामिल हैं। शैव भी दो तरह के होते हैं शास्त्र धारी यानी शास्त्रों के ज्ञाता और अस्त्र धारी यानी वे नागा योद्धा जो अस्त्र शस्त्र लेकर चलते हैं। तेरहवे अखाड़े के रूप में किन्नर अखाड़ा को जूना अखाड़े से जोड़ दिया गया।
कुंभ में भारत की विविधता नजर आती है। तरह-तरह के परिवार तरह तरह के लोग, हर वर्ग और हर समूह और हर धर्म के लोग यहां दिखते हैं सबके दिल में एक ही बात दिखती है वह है आस्था। यूनेस्को ने कुंभ को मानवता की अद्वितीय सांस्कृतिक विरासत माना है। हर कुंभ मेले की तारीख आज भी हिंदू पंचांग के अनुसार सूर्य चंद्रमा और ग्रहों की चाल से तय होती है। इस मेले का सबसे पुराना साक्ष्य (रिकॉर्ड) सातवीं सदी में मिलता है। चीन के यात्री हेनसांग ने लिखा था की राजा हर्षवर्धन माघ के महीने में एक खास समय में होने वाले उत्सव में जाते थे जो संगम के किनारे होता था प्रयागराज में।
बाद में ब्रिटिश राज्य के दौरान कुंभ मेले की कई तस्वीरें छपी और लेख लिखे गए विदेशियों को इन तस्वीरों ने ही कुंभ की तरफ आकर्षित किया था उन्होंने यह तस्वीरें देखी थी जिनमें उन्हें एक जगह पर इंसानों का इतना बड़ा जन सैलाब नजर आया, तंबू से बने शहर दिखे और वस्त्र हीन नागा साधु नजर आए उन्हें देखकर सबके मन में यही उत्सुकता जागी कि आखिर यह है क्या और वे लोग इसका पता लगाने की कोशिश करने लगे। आज भी कुंभ में दुनियाभर से लोग श्रद्धालु, भक्त और तीर्थयात्री आते हैं इस आस्था की आध्यात्मिक पलों का अनुभव करने के लिए।
प्रयागराज कुम्भ
प्रत्येक दिन विधि विधान से गंगा आरती होती है जिसमें सभी भक्त भाग लेते हैं। और आध्यात्मिक अविस्मरणीय गंगा नदी की लहरों से उत्पन्न हवा के झोंकों से अपने हृदय में ईश्वर का वास प्राप्त करते हैं। कोई संगम में डुबकी लगाता है तो वह सिर्फ गंगा जी के पानी में नहाता ही नहीं है बल्कि वह अपने अंदर की हकीकत में डुबकी लगाता है और अपनी सूखी आत्मा को तृप्त करता है।
कुंभ मेले में भांति भांति प्रकार की गतिविधियां होती रहती हैं उत्सव और खुशियों का माहौल रात में भी कुंभ मेले में काफी चहल-पहल रहती है। हमारे पास अट्ठारहवीं और बीसवीं शताब्दी के साक्ष्य जिसमें कहा गया है कि प्रयागराज के माघ मेले में सभी प्रकार की वस्तुएं मिलती थी।
मकर संक्रांति के दिन नागा साधुओं की शाही स्नान से कुंभ मेला का पारंपरिक शुरुआत होता है। मकर संक्रांति भगवान सूर्य का त्यौहार होता है इस दिन के बाद से दिन बड़ा और राते छोटे होने लगती हैं। श्रद्धालु संगम में डुबकी लगाकर अपने पापों को धूल कर भगवान सूर्य से अच्छे भविष्य की प्रार्थना करते हैं। प्रयागराज संगम में नागा साधु विशिष्ट आकर्षण का केंद्र होते हैं यह सांसारिक सुख-सुविधाओं का त्याग कर एक रहस्यमई जीवन व्यतीत करते हैं। यह जीते जी अपना अंतिम क्रिया कर्म श्राद्ध कर देते हैं और खुद को मरा मान लेते हैं।
नागा साधु वस्त्र धारण नहीं करते इनके लिए आकाश ही वस्त्र है। नागा साधु शिव के उपासक होते हैं और वस्त्र के नाम पर अपने शरीर पर राख लगाते हैं और यही इनका वस्त्र होता है। और इनका वस्त्रहीन होने का अर्थ यह है कि इन्होंने सभी सांसारिक सुख सुविधाओं का त्याग कर दिया है और अपने धर्म की दी हुई दीक्षा का पालन करते हैं।
नागा साधु के पास पारंपरिक रूप से अपना कुछ नहीं होता है वह दान और भिक्षा से अपना अपना जीवन यापन करते हैं और ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं और इनका कोई परिवार नहीं होता। और अपने ही सिद्धांतों पर अपना जीवन यापन करते हैं। नागा साधु सभी धार्मिक स्थलों का भ्रमण करते रहते हैं और इन धार्मिक स्थलों के भ्रमण करने से इनके अंदर एक आध्यात्मिक ऊर्जा संचित रहती है।
और इनके प्रथम शाही स्नान से ऐसा माना जाता है कि संगम नदी और पवित्र हो जाती है पूरी नदी आध्यात्मिक शक्ति से भर जाती है उनके स्नान करने के बाद ही भक्त, श्रद्धालु तीर्थयात्री और सैलानी स्नान करते हैं। सभी पापों और कष्टों से मुक्ति प्राप्त करते हैं और एक स्वस्थ जीवन की शुरुआत करते हैं। इस तरह से कुंभ का पारंपरिक शुरुआत हो जाता है यह दृश्य सदियों से चलता आ रहा है।
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