जो मृत्यु को जीत ले वह है महाकाल, अपने भक्तों की रक्षा करें और काल को मारे वह हैं महाकालेश्वर। ऐतिहासिक विरासत से भरपूर भारत का ह्रदय मध्य प्रदेश में स्थित शहर उज्जैन में शिव के सबसे बड़े रूप और बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक ज्योतिर्लिंग महाकालेश्वर विराजमान हैं। ढाई हजार साल पहले अवंतिका अब उज्जैन के नाम से मशहूर शहर मध्य भारत का एक राजनैतिक और व्यापारिक केंद्र था।
आज उज्जैन भारत के सौ स्मार्ट सिटी में से एक है। यहां भक्तों के मन में पूजा की आस्था हर सड़क हर चौराहे पर दिखाई देती है। शिव के प्रति आस्था शिप्रा नदी के किनारे बसे उज्जैन में भगवान शिव के 84 से अधिक मंदिर है। उज्जैन भारत के सप्तपुरियों में से एक है अर्थात 7 सबसे पवित्र तीर्थ स्थलों में से एक है।
महाकाल की कहानी
समुंद्र मंथन के बाद अमृत से भरा कलश या कुंभ जब बाहर निकला तब उसको पीने के लिए असुर और देवताओं में युद्ध छिड़ गया भगवान विष्णु ने उस अमृत से भरे कलश को अपने वाहन गरुड़ को सौंप दिया जब गरुण अमृत से भरे कलश को लेकर उड़ रहे थे तब इस अमृत से भरे कलश से अमृत की चार बूंदें भारत के चार जगह पर गिरीं तब से वे जगह महातीर्थ बन गए, उनमें से एक है उज्जैन।
कुंभ में स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है यानी जन्म, मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति प्राप्त होता है। शिव की नगरी उज्जैन में कुंभ का महत्व बढ़ जाता है क्योंकि यहां पर शिव है महाकालेश्वर। काल मतलब समय और समय सब कुछ को खा जाता है नश्वर करता है समय के साथ सब कुछ बदलता है तो हम समय से बहुत डरते हैं काल को बहुत भयानक रूप दिया गया है भगवान शिव वह है जो काल के ऊपर विजय प्राप्त करते हैं इसलिए भगवान शिव महाकाल हैं।
‘शिव’ शब्द का अर्थ है शुभ और शुद्ध। पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन से निकला विष सारे संसार को नष्ट कर डालता यदि भगवान शिव ने उसे पीकर अपने गले में ना रोका होता। इस विष के प्रभाव से उनका कंठ नीला हो गया और भगवान शिव नीलकंठ कहलाए। भगवान शिव की पूरे संसार में विभिन्न नामों से आराधना और पूजा की जाती है।
भगवान शिव की शक्ति का तेज किसी एक आकार से परे है अतः यह शिवलिंग के रूप में पूजे जाते हैं। मृत्यु और समय से परे सांसारिक सुख सुविधाओं से दूर शिव बैरागी हैं। आकाश पाताल कैलाश पर्वत या शमशान का छोर भगवान शिव के लिए सब जगह बराबर है।
ब्रह्मा और विष्णु के बीच में लड़ाई हुई थी कि सृष्टि का निर्माण किसने किया तभी दोनों के बीच में एक अग्नि का स्तंभ निकला, एक ऐसा स्तंभ जिसका ना तो शीर्ष दिखाई देता ना तो नींव दिखाई देता। तब ब्रह्मा और विष्णु आपस में कहते हैं कि यह क्या है? तब ब्रह्मा जी पुनः कहते हैं कि मैं हंस रूप धारण करके ऊपर जा कर देखता हूं और फिर विष्णु जी कहते हैं कि मैं बराह हो रूप धारण कर नीचे जा कर देखता हूं।
ब्रह्मा जी और विष्णु जी का यह खोज कई कालों तक चला लेकिन उनको इस अग्नि स्तंभ का ना तो शीर्ष मिला और न ही नींव मिली। आखिरकार दोनों परास्त होकर लौट आए। तब उसी स्तंभ से भगवान शिव प्रकट हुए और शिव जी ने ज्योति का रूप लिया था यह ज्ञात कराने के लिए था कि यह जो आत्मा है ना ही इसका कोई शुरुआत नही इसका कोई अंत है।
भारत के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग इकलौता दक्षिणमुखी ज्योतिर्लिंग है। दक्षिण है मृत्यु की दिशा जहां यमराज का निवास है। पुराणों के अनुसार भगवान शिव ने अपने भक्त मारकंडेय के प्राण बचाने के लिए मृत्यु के देवता यमराज को पराजित किया। महामृत्युंजय मंत्र का जाप पहली बार मार्कंडेय ने किया था आज भी मृत्यु का डर दूर करने के लिए यह मंत्र पढ़ा जाता है।
भस्म आरती और महाकालेश्वर
और मृत्यु के चिन्ह राख से जुड़ी है भस्म आरती महाकालेश्वर मंदिर की अद्वितीय प्रथा है। कहा जाता है कि पहले यह राख शमशान से आती थी। आज यह कपिला गाय के गोबर के कंडे पीपल पलाश अमलतास और बैर की लकड़ियों को जलाकर तैयार की जाती है राख का महत्व जुड़ा है महाकाल से।
राख बैराग का चिन्ह है मृत्यु का चिन्ह है मोक्ष का चिन्ह है जब कुछ नहीं रहता तो आत्मा रहती है जब शरीर को आप जला देते हो तब जो बचा है वह राख है। उसे आत्मा का चिन्ह माना जाता है। राख को आप जला नहीं सकते वैसे ही आप आत्मा को तोड़ नहीं सकते भस्मारती केवल महाकालेश्वर मंदिर में ही की जाती है। यहां विराजमान है शिव का सबसे शक्तिशाली रूप। माना जाता है कि इसके दर्शन भर से ही मृत्यु का भय खत्म हो जाता है। विश्व भर में शिव को विभिन्न रूपों से पूजा जाता है अगर हम भारत के संदर्भ में बात करें तो हम भारत के अलग-अलग राज्यों में जाते हैं।
तो हमें भगवान शिव के अलग-अलग रूप नजर आते हैं- जैसे दक्षिण भारत में उनका सबसे प्रिय रूप है तांडव या नटराज रूप। कुछ राज्यों में भगवान शिव को शक्ति के रूप में दिखाया गया है, अर्धनारीश्वर के रूप में। उनका एक रूप भैरव रूप है या वीरभद्र रूप। दक्षिणेश्वर का रूप जहां वह हिमालय पर्वत पर बैठकर ऋषि-मुनियों को वेद मंत्र पुराणों का ज्ञान दे रहे हैं। कुछ जगहों पर भोलेनाथ कहा जाता है कि भगवान शिव इतने भोले हैं कि उन्हें सांसारिक जीवन समझ में नहीं आता। और महाकालेश्वर समय और काल के ईश्वर।
उज्जैन वह नगरी है जिसका प्राचीन काल से समय के साथ अटूट नाता है। जो समय रेखा आज ग्रीनविच से जाती है वह प्राचीन काल में उज्जैन से होकर जाती थी। और दुनिया भर के समय उज्जैन के समय से तय किए जाते थे जीरो डिग्री विषुवत रेखा या भूमध्य रेखा वह काल्पनिक रेखा है जो उत्तरी ध्रुव को दक्षिणी ध्रुव से जोड़ती है समय की गणना इसी रेखा से की जाती है।
1884 ईस्वी में ग्रीनविच को पूरे विश्व का प्राइम मेरिडियन स्वीकार किया गया। दुनियाभर के टाइम जोन की गणना आज भी ग्रीनविच की प्राइम मेरिडियन से किया जाता है पर कई सदियों पहले भारत में समय की गणना करने के लिए प्राइम मेरिडियन उज्जैन में माना जाता था। और कर्क रेखा भी उज्जैन से गुजरती थी। यह रेखा वहीं से गुजरती थी जहां पर महाकालेश्वर की मंदिर स्थित है पुराणों के अनुसार उज्जैन को भौगोलिक दृष्टि से पृथ्वी की नाभि कहते थे।
पृथ्वी अपने अक्ष पर साढ़े 23 डिग्री झुकी हुई है और इसी अक्ष से सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है। समय के अनुसार पृथ्वी का कोण और कर्क रेखा का स्थान बदलता रहता है। आज कर्क रेखा उज्जैन से लगभग 37 किलोमीटर दूर डोंगल गांव से होकर गुजरती है। दूसरी सदी के ग्रीक विद्वान टॉलमी ने अपने भौगोलिक नक्शों में ओजिन का उल्लेख किया है। ओजीन कोई और शहर नहीं बल्कि उज्जैन था।
उज्जैन महाकाल की नगरी होने के साथ-साथ कहीं और लोकप्रिय हस्तियों से भी जुड़ा हुआ है जैसे- सम्राट अशोक मौर्य शासन के दौरान यहां के राज्यपाल रहे सिंहासन बत्तीसी के नायक महाराज विक्रमादित्य और महान कवि कालिदास जिन्होंने कई रचनाएं की मेघदूत जिसमें उन्होंने उज्जैन का वर्णन किया।
जब हम उज्जैन की बात करते हैं तो हमें विक्रमादित्य के बारे में जरूर बात करनी चाहिए। महाराज विक्रमादित्य भारतीय लोक परंपरा में भारत के बहुत ही प्रतापी राजा रहे। उनकी एक कहानी है जिसे हम विक्रम बेताल के नाम से जानते हैं और कहते हैं कि उनके पास एक अघोरी आया था और उसने कहा कि मुझे बेताल चाहिए जो महाकालेश्वर वन में रहता है।
बहुत मुश्किल था उस बेताल को पकड़ना क्योंकि अगर आपने उससे बात चित शुरू कर दिया तो वह भाग जाता था। 25 बार जब बेताल प्रश्न पूछ रहा था तो विक्रमादित्य ने उत्तर दिया। विक्रमादित्य चुप हो जाते हैं तब बेताल उनसे कहता है कि अगर राजा चुप रहेगा तो फिर अघोरी राज करेगा तुम्हें चुप नहीं रहना चाहिए मतलब बेताल विक्रमादित्य को राज धर्म का ज्ञान दे रहा था।
न्याय और सत्य के साथ साथ विक्रमादित्य ने अपने शासन में काल में वैज्ञानिक खोज को भी बढ़ावा दिया पांचवी शताब्दी में जब रोमन सम्राट ध्वस्त हो गया और यूरोप था अंधकार युग के कगार पर तब भारत में ब्रह्मांड के रहस्य पर काम चल रहा था पृथ्वी की गोलाई तथा ग्रहों की गति को समझा जा रहा था और इन सब का केंद्र था उज्जैन।
राजा विक्रमादित्य ने समय की गणना के लिए एक संवत चलाया जिसको विक्रम संवत कहा गया यह विक्रम संवत ईसवी संवत से भी पुराना था विक्रम संवत की शुरुआत 57 ईसा पूर्व में हुई यह संवत भारत के प्राइम मेरिडियन पर आधारित था।
और आज भी सनातन धर्म के त्योहारों की तिथि निकालने और जन्मपत्री बनाने इसका उपयोग होता है। विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक रत्न वाराह्मीर थे। यह एक खगोलवेत्ता थे। जिन्होंने खगोलीय ग्रंथ की रचना की इन ग्रंथों में उन्होंने खगोलीय गड़ना की जानकारी दी है। खगोलशास्त्र अर्थात एस्ट्रोनॉमी ब्रह्मांड को समझने का विज्ञान। छठी शताब्दी में वराहमिहिर ने खगोल के एक प्राचीन सिद्धांत सूर्य सिद्धांत का अध्ययन किया और उसका सार लिखा। वाराह्मीर के प्रयोगों के बारह सौ साल बाद सवाई राजा जयसिंह ने उज्जैन में वेधशाला बनवाई। और यह वेद्यशाला आज भी प्रयोग में हैं।
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